"दिल्ली आने के बाद कई नई बातें जानी है, समझी है, सीखी हैं। लेकिन, गालियों का जो जाल इस शहर में सुना है वो मेरे लिए बहुत बड़ा झटका है। हर वाक्य की शुरुआत बहन चो.... से और अंत भी बहन चो.... से। मन कचवा जाता है बहन चो.... बहन चो.... बहन चो.... सुन-सुनकर... दोस्तों के बीच जब ये बात कहती हूँ तो जवाब मिलता है कि अब इतना तो चलता ही है, तुम कुछ ज़्यादा ही सोफ़ेस्टीकेटेट हो। क्या बिना गालियों के बात करना सोफ़ेस्टीकेश होता है... या फिर महज सभ्य होना है... हम आखिर है क्या सभ्य लोग या फिर बहन चो....
बस स्टॉप पर -
बहन चो....आज सुबह-सुबह पाँच बजे उठना पड़ा... बहन चो....
बहन चो....रात को 2 बज गए थे साते हुए... बहन चो....
बहन चो....ये काम के चक्कर में ना कुत्ते बन गए हैं... बहन चो....
बस में ड्राइवर कन्डक्टर की बातें -
बहन चो....सवारी को ऊपर कर... बहन चो....
बहन चो....शीशे से दूरकर... बहन चो....
बहन चो....टिकिट काट... बहन चो....
बहन चो....आगे देख कितनी सवारियाँ चढ़ी हैं... बहन चो....
बस में बात करते लोग -
बहन चो....सोच रहा हूँ एक सेकेन्ड बस खरीदनी है... बहन चो....
बहन चो....सोच रहा हूँ गांव भिदवा दूँ... बहन चो....
बहन चो....कितने तक में आ जाएगी... बहन चो....
बहन चो....ये तो देखना पड़ेगा कि कैसी चाहिए... बहन चो....
बहन चो....किस कन्डीशन की चाहिए.... बहन चो....
बहन चो....फिर चलना शाम को दिखा दूँगा... बहन चो....
ऑफ़िस जाते हुए लोगों की बातचीत -
बहन चो....छुट्टी के दिन भी काम करना पड़ता है... बहन चो....
बहन चो....इतना काम दे दिया है न कि क्या बताए... बहन चो....
बहन चो....घरवाले बोलते हैं, छुट्टी लो तो कही घूमने जाए... बहन चो....
बहन चो....घरवालों को ऑफ़िस की कोई समझ ही नहीं हैं... बहन चो....
आप कोई भी भाषा बोलते हो, लोग तैयार है उसकी बहन चो.... के लिए..."
उपरोक्त बातें दिप्ती ने अपने ब्लोग (http://looseshunting.blogspot.com/)पर लिखी हैं जिससे सद्जनो को बहुत पीडा हो रही है.
क्या है दिप्ती की इन बातों में? अपने रोज की दिनचर्या मे से दो घंटों का ही तो विवरण मात्र दिया है. अपने घर से निकलने से लेकर आफ़िस पहुचने तक के दो घंटे.. समस्या ये है कि इन्होने इसे महज लोगो की बातचीत कह्कर बताया है. जबकि सच्चाई मे ये बस स्टाप पर खडे लोगो की नही, बस स्टाप पर खडे पुरुष लोगो की हैं. ड्राइवर कन्डक्टर भी पुरुष एवं ऑफ़िस जाते हुए लोग भी.. पर आश्चर्य ये है कि लोग बडी ही ढीढता के साथ ये कह रहे है कि महिलाये बराबरी पर उतरने की कोशिश कर रहीं हैं. कुछ ’लोग’ अपनी बेशर्मी को ही अपना हथियार बनाये बैठे हैं.
जापान मे लीपी के विकास के सफ़र को देखने से पता चलता है कि वहां पुरुषों ने महिलायो के लिये एक अलग सी लिपि का निर्माण कर रखा था. पुरुष कांजी इस्तेमाल करते थे एवं स्त्रियां हिरा-काना. पुरुष कांजी का इस्तेमाल कर अपने को श्रेस्ठ समझा करते थे. जापान की सामंती समाज का आलम ये है कि आज भी वहा बुराकु नाम की जातियां भारत के दलितो से भी बदतर जीवन जीने को मजबुर है. दरभंगा के मैथिल ब्राहमणों एवं अन्य लोगो की मैथिली मे बहुत अन्तर होता है.
भारतीय समाज ने भी कुछ इसी तरह गालियों को वर्गिक्रित कर रखा है. पुरुष बहनxx की गाली दे सकते हैं तो महिलाये मोछकबरा..पढी लिखी महिलाये इडियट और डफ़र भी कह सकती है, जिनसे मुख्यतः पुरुषो को मजा आता है. ना जाने कितनी बार दिप्ती ने ही अपने पुरुष मित्रों को डफ़र कहा होगा और जिसे सुन उनके पुरुष मित्र मुसकुराते होंगे. पर शायद कभी उन्होने उन्ही मित्रो को बहनxx कहा होता तो ये उनकी दोस्ती के आखिरी दिन होते. मेरी ही कइ साथिने कई मौको पर ’ओह फ़क’ बोल जाती हैं. इनसे उनके सभ्य होने पर कभी सवाल नहीं उठते, लेकिन दिप्ती का एक कहानी कहने वाले के हैसियत से भी बहनचोद बोलना लोगो को गवांरा नही.
असल मे गालियां जो पुरुष देते हैं, अपने पुरुषार्थ को साबित करने के लिये. फ़लां की बहन xx देंगे, फ़लां की मां.. महिलायें ये गालियां उस भाव के साथ दे ही नही सकतीं. लेकिन जिस बहनचो.. की चर्चा दिप्ती कर रही हैं वो तो भावहीन है. महज पुरुषों के एकाधिकार वाली भाषा. इस बहनचो.. से न तो ड्राइवर को गुस्सा आता है ना ही कन्डक्टर को. ना ही उन यात्रियों को ना ही उन ओफ़िस जाने वाले को.. अगर गुस्सा आया तो उन लोगो को जो इन गालियों को अपन एकाधिकार मानते हैं और किसी महिला का अतिक्रमण उन्हे बर्दाश्त नही. अगर गालियां भाषा का हिस्सा नही तो फ़िर सदियों से ’लोग’ इनका इस्तेमाल कैसे करते आ रहे है. और अगर भाषा का हिस्सा है तो महिलायें क्यो नही इस्तेमाल कर सकती? ये गुस्सा ऐसा ही है जो वेदों के सुनने पर कान मे उघला शीशा डालने पर मजबुर करता है. अतिक्रमण के बिरुद्ध आया हुया गुस्सा.. यह मानते हुये कि वेदों के पढने से दलितो को कोइ भला नही हो सकता फ़िर भी हम इस भेदभाव के खिलाफ़ खडे नजर आते हैं तो फ़िर महिलायों के गालियां इस्तेमाल करने के पक्ष मे क्यों नही. सच्चाई है कि भारत का स्त्री आंदोलन दलितों के आंदोलन से भी पिछड गया है. दलित सवर्ण के विभाजन से भी पहले हुआ, स्त्री पुरुष का विभाजन आज भी अपेक्षाकृत गहरा है.
बस स्टॉप पर -
बहन चो....आज सुबह-सुबह पाँच बजे उठना पड़ा... बहन चो....
बहन चो....रात को 2 बज गए थे साते हुए... बहन चो....
बहन चो....ये काम के चक्कर में ना कुत्ते बन गए हैं... बहन चो....
बस में ड्राइवर कन्डक्टर की बातें -
बहन चो....सवारी को ऊपर कर... बहन चो....
बहन चो....शीशे से दूरकर... बहन चो....
बहन चो....टिकिट काट... बहन चो....
बहन चो....आगे देख कितनी सवारियाँ चढ़ी हैं... बहन चो....
बस में बात करते लोग -
बहन चो....सोच रहा हूँ एक सेकेन्ड बस खरीदनी है... बहन चो....
बहन चो....सोच रहा हूँ गांव भिदवा दूँ... बहन चो....
बहन चो....कितने तक में आ जाएगी... बहन चो....
बहन चो....ये तो देखना पड़ेगा कि कैसी चाहिए... बहन चो....
बहन चो....किस कन्डीशन की चाहिए.... बहन चो....
बहन चो....फिर चलना शाम को दिखा दूँगा... बहन चो....
ऑफ़िस जाते हुए लोगों की बातचीत -
बहन चो....छुट्टी के दिन भी काम करना पड़ता है... बहन चो....
बहन चो....इतना काम दे दिया है न कि क्या बताए... बहन चो....
बहन चो....घरवाले बोलते हैं, छुट्टी लो तो कही घूमने जाए... बहन चो....
बहन चो....घरवालों को ऑफ़िस की कोई समझ ही नहीं हैं... बहन चो....
आप कोई भी भाषा बोलते हो, लोग तैयार है उसकी बहन चो.... के लिए..."
उपरोक्त बातें दिप्ती ने अपने ब्लोग (http://looseshunting.blogspot.com/)पर लिखी हैं जिससे सद्जनो को बहुत पीडा हो रही है.
क्या है दिप्ती की इन बातों में? अपने रोज की दिनचर्या मे से दो घंटों का ही तो विवरण मात्र दिया है. अपने घर से निकलने से लेकर आफ़िस पहुचने तक के दो घंटे.. समस्या ये है कि इन्होने इसे महज लोगो की बातचीत कह्कर बताया है. जबकि सच्चाई मे ये बस स्टाप पर खडे लोगो की नही, बस स्टाप पर खडे पुरुष लोगो की हैं. ड्राइवर कन्डक्टर भी पुरुष एवं ऑफ़िस जाते हुए लोग भी.. पर आश्चर्य ये है कि लोग बडी ही ढीढता के साथ ये कह रहे है कि महिलाये बराबरी पर उतरने की कोशिश कर रहीं हैं. कुछ ’लोग’ अपनी बेशर्मी को ही अपना हथियार बनाये बैठे हैं.
जापान मे लीपी के विकास के सफ़र को देखने से पता चलता है कि वहां पुरुषों ने महिलायो के लिये एक अलग सी लिपि का निर्माण कर रखा था. पुरुष कांजी इस्तेमाल करते थे एवं स्त्रियां हिरा-काना. पुरुष कांजी का इस्तेमाल कर अपने को श्रेस्ठ समझा करते थे. जापान की सामंती समाज का आलम ये है कि आज भी वहा बुराकु नाम की जातियां भारत के दलितो से भी बदतर जीवन जीने को मजबुर है. दरभंगा के मैथिल ब्राहमणों एवं अन्य लोगो की मैथिली मे बहुत अन्तर होता है.
भारतीय समाज ने भी कुछ इसी तरह गालियों को वर्गिक्रित कर रखा है. पुरुष बहनxx की गाली दे सकते हैं तो महिलाये मोछकबरा..पढी लिखी महिलाये इडियट और डफ़र भी कह सकती है, जिनसे मुख्यतः पुरुषो को मजा आता है. ना जाने कितनी बार दिप्ती ने ही अपने पुरुष मित्रों को डफ़र कहा होगा और जिसे सुन उनके पुरुष मित्र मुसकुराते होंगे. पर शायद कभी उन्होने उन्ही मित्रो को बहनxx कहा होता तो ये उनकी दोस्ती के आखिरी दिन होते. मेरी ही कइ साथिने कई मौको पर ’ओह फ़क’ बोल जाती हैं. इनसे उनके सभ्य होने पर कभी सवाल नहीं उठते, लेकिन दिप्ती का एक कहानी कहने वाले के हैसियत से भी बहनचोद बोलना लोगो को गवांरा नही.
असल मे गालियां जो पुरुष देते हैं, अपने पुरुषार्थ को साबित करने के लिये. फ़लां की बहन xx देंगे, फ़लां की मां.. महिलायें ये गालियां उस भाव के साथ दे ही नही सकतीं. लेकिन जिस बहनचो.. की चर्चा दिप्ती कर रही हैं वो तो भावहीन है. महज पुरुषों के एकाधिकार वाली भाषा. इस बहनचो.. से न तो ड्राइवर को गुस्सा आता है ना ही कन्डक्टर को. ना ही उन यात्रियों को ना ही उन ओफ़िस जाने वाले को.. अगर गुस्सा आया तो उन लोगो को जो इन गालियों को अपन एकाधिकार मानते हैं और किसी महिला का अतिक्रमण उन्हे बर्दाश्त नही. अगर गालियां भाषा का हिस्सा नही तो फ़िर सदियों से ’लोग’ इनका इस्तेमाल कैसे करते आ रहे है. और अगर भाषा का हिस्सा है तो महिलायें क्यो नही इस्तेमाल कर सकती? ये गुस्सा ऐसा ही है जो वेदों के सुनने पर कान मे उघला शीशा डालने पर मजबुर करता है. अतिक्रमण के बिरुद्ध आया हुया गुस्सा.. यह मानते हुये कि वेदों के पढने से दलितो को कोइ भला नही हो सकता फ़िर भी हम इस भेदभाव के खिलाफ़ खडे नजर आते हैं तो फ़िर महिलायों के गालियां इस्तेमाल करने के पक्ष मे क्यों नही. सच्चाई है कि भारत का स्त्री आंदोलन दलितों के आंदोलन से भी पिछड गया है. दलित सवर्ण के विभाजन से भी पहले हुआ, स्त्री पुरुष का विभाजन आज भी अपेक्षाकृत गहरा है.